मामला निरस्त करना

    आरोप तो कभी भी कंही भी और किसी के भी ऊपर लग सकते हैं। किंतु आरोप साबित सिर्फ न्यायालय में ही होता है।

    भारत का संविधान कहता है, कि 100 गुनाहगार छूट जाऐं, लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए, नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (NJAD) के मुताबिक देश भर की अदालतों में पाँच करोड से भी अधिक केस लंम्बित है। वहीं भारत में पाँच लाख पचास हजार से अधिक लोग जेलों में बंद हैं जिनमें से चार लाख सत्ताईस हजार तो सिर्फ बदीं हैं, जिनका अभी भी ट्रायल चल रहा है। तथा लाखों लोग जमानत पर बाहर हैं। उपरोक्त भयाभय स्थिति में, न जाने कितने बेकसूर और बेगुनाह जेल की सलाखों के अन्दर बंद है। और पता नहीं कितने लोग आने वाले समय में जेल में जाने वाले है। ऐसे में आवश्यक्ता है। कि भारत मे प्रत्येक अभियुक्त/आरोपित व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत अनुभवी वरिष्ठ अधिवक्ताओं का उचित मार्गदर्शन मिले, जिससे वह अपने जीवन को कानूनी प्रकरणों से मुक्त कर अपनी पत्नी बच्चों अथवा परिजनों के साथ सवच्छंद विचरण कर सके।
    पांच करोड़ से अधिक लंबित केस की भयानक स्थिति को देखते हुये सम्पूर्ण भारत में कार्यरत संस्थान लाईफ सेविंग आर्गेनाईजेशन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत बुद्धिमान बरिष्ठ अधिवक्ताओं का पैनल बनाया है, जिनके द्वारा लाईफ सेविंग आर्गेनाइजेशन की वेबसाईट पर आरोपी की मदद कॉलम में अभियुक्त/आरोपी अथवा उसके परिजनो द्वारा अभियुक्त/आरोपी के विवरण के साथ
    1.अभियोग की प्राथमिकि की प्रति
    2.आरोपपत्र/अभियोग पत्र की प्रति
    3.आरोपी के पक्ष में उपलब्ध साक्ष्य
    4.आरोप से सम्बंधित आरोपी के पक्ष का लिखित विवरण
    5.आरोपी के पक्ष का विवरण आडियो/वीडियो फॉर्मेट में अपलोड किया जाता है।
    तदोपरांत लाईफ सेविंग आर्गेनाईजेशन के पैनल में शामिल सुप्रीम कोर्ट के बुद्धिमान वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा अभियुक्त/आरोपी अथवा उसके परिजनो से प्राप्त प्रकरण की पूर्ण जानकारी का गम्भीरतापूर्वक गहन अध्ययन किया जाता है एवं उसके बाद प्रकरण में से सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के आधार पर अभियुक्त/आरोपी के पक्ष में तथ्यों का अवलोकन कर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अन्तर्गत प्रकरण के निराकरण से सम्बंधित माननीय उच्च न्यायालय के लिये आवेदन तैयार किया जाता है। और आरोपी द्वारा अपने अधिवक्ता के माध्यम से सम्बंधित उच्च न्यायालय से अपने प्रकरण का निराकरण प्राप्त करता है। आवेदन भरने और दस्तावेज अपलोड करने के बाद ऑनलाइन भुगतान करना होता है, एवं आवेदन का निराकरण अभियुक्त/आरोपी/आवेदक को उसकी ईमेल पर पीडीऍफ़ में प्रेषित किया जाता है।
    यदि अभियुक्त/आरोपी/आवेदक अपने प्रकरण की पैरवी सम्बंधित हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लाइफ सेविंग आर्गेनाइजेशन के पैनल अधिवक्ताओं से कराना चाहता है तो यह भी सुविधा उपलब्ध है उसके लिए उसको अलग से शुल्क वहन करना होगा।
    क्योंकि जन्म से कोई भी मनुष्य गुनेहगार नहीं होता है हालात और परिस्थितयों के अंतर्गत अपराध होता है, और सभी को सुधरने का मौका देना अथवा क्षमा करना ही मानव जीवन का सर्वोत्तम गुणधर्म है।।

    Case Quashing का सीधा अर्थ है—हाई कोर्ट द्वारा एफ़आईआर/शिकायत/चार्जशीट को रद्द करना, ताकि आपके खिलाफ़ चली आ रही आपराधिक कार्यवाही वहीं समाप्त हो जाए। परम्परागत रूप से यह शक्ति दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के अंतर्गत हाई कोर्ट की “inherent powers” से जुड़ी रही है (नए कानूनों में भी हाई कोर्ट की समकक्ष अंतर्निहित शक्तियां बरकरार हैं)। कोर्ट तब दख़ल देता है जब उसे लगता है कि:

    • मामला कानून की नज़र में अपराध बनता ही नहीं, या

    • प्राथमिक नज़र में (prima facie) केस नहीं बनता, या

    • प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया है (मालाफ़ाइड/बदले की भावना), या

    • यह मूलतः सिविल विवाद है जिसे गलत तरीके से आपराधिक रंग दे दिया गया, या

    • पक्षकारों में समझौता/सुलह हो चुकी है और आगे कार्यवाही जारी रखना न्याय के हित में नहीं होगा, या

    • कानूनी पूर्व-स्वीकृति (sanction) जैसी अनिवार्य औपचारिकता पूरी ही नहीं हुई, या

    • जांच/कार्यवाही में गंभीर प्रक्रिया-गत त्रुटियां हैं।

    क्वैशिंग का मक़सद निर्दोष व्यक्ति को अनावश्यक मुक़दमेबाज़ी से बचाना और न्यायपालिका का समय सही मामलों में लगाना है।


    Quashing, Discharge और Acquittal में फ़र्क

    • Quashing (हाई कोर्ट में): एफ़आईआर/चार्जशीट ही रद्द—मुक़दमा आगे नहीं चलता।

    • Discharge (ट्रायल कोर्ट में): अदालत मानती है कि आरोप साबित होने की संभावना नहीं—आरोपी डिस्चार्ज।

    • Acquittal (बरी): ट्रायल पूरा होने के बाद साक्ष्यों के आधार पर दोषमुक्ति।

    कई लोग सोचते हैं कि “समझौता” हो गया तो अपने-आप केस ख़त्म हो जाएगा—ऐसा नहीं है। आपसी सुलह एक मज़बूत आधार ज़रूर है, पर आदेश तो अदालत ही देती है। इसलिए सही विधिक ड्राफ्टिंग और प्रेज़ेंटेशन बहुत महत्वपूर्ण है।


    किन मामलों में FIR/चार्जशीट क्वैश हो सकती है?

    हर केस यूनिक होता है, फिर भी अनुभव बताता है कि इन परिस्थितियों में हाई कोर्ट दख़ल देता है:

    1. झूठी/मनगढंत एफ़आईआर—जहाँ तथ्य ही अपराध नहीं बनाते।

    2. सिविल प्रकृति के विवाद—जैसे पैसों का लेन-देन, कॉन्ट्रैक्ट/प्रॉपर्टी विवाद, जिन्हें आपराधिक रंग देकर दबाव बनाया गया हो।

    3. मैट्रीमोनियल/परिवारिक विवाद में समझौता—धारा 498A इत्यादि में वैवाहिक विवाद सुलझ जाने पर।

    4. चेक बाउंस (NI Act 138) जैसे कंपाउंडेबल मामलों में समझौता—जहाँ भुगतान/सेटलमेंट हो चुका हो।

    5. कानूनी प्रक्रियात्मक खामी—जैसे आवश्यक स्वीकृति का अभाव, गलत धारा लगना, jurisdiction की समस्या, दोहराव इत्यादि।

    6. मालाफ़ाइड/हैरासमेंट—साफ़ दिखे कि आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है।

    ध्यान दें: बहुत गंभीर अपराधों (जैसे जघन्य हिंसक अपराध) में समझौते के बावजूद क्वैशिंग मिलना कठिन होता है। अदालत “समाज के हित” का भी संतुलन देखती है।


    कौन-कौन Quashing की याचिका लगा सकता है?

    • सामान्यतः आरोपी पक्ष याचिका दायर करता है।

    • शिकायतकर्ता/प्रभावित पक्ष भी—विशेषकर जहाँ आपसी सुलह हो चुकी हो—समर्थन में हलफ़नामा देता है।

    • कुछ मामलों में स्टेट/पुलिस भी, अगर पाए कि केस आगे चलाना उचित नहीं।


    कहाँ और कैसे दायर होती है?

    याचिका उस हाई कोर्ट में दायर होती है, जहाँ अपराध दर्ज हुआ/जांच चल रही है। प्रक्रिया broadly इस प्रकार है:

    1. कानूनी परामर्श व केस-स्क्रीनिंग – LSO Legal पर हमारे सीनियर वकील पूरे काग़ज़ देखते हैं: एफ़आईआर, शिकायत, चार्जशीट, केस-डायरी के अंश (यदि उपलब्ध), जमानत आदेश, समझौता पत्र, बैंक/ट्रांजैक्शन रिकॉर्ड, मेडिकल/सीसीटीवी/कॉल रिकॉर्ड आदि।

    2. रणनीति तय करना – क्या क्वैशिंग सर्वोत्तम उपाय है या पहले डिस्चार्ज/कंपाउंडिंग/मेडिएशन/सेक्शन चेंज? हर केस के लिए अलग रोडमैप बनता है।

    3. याचिका ड्राफ्टिंग – तथ्यों का सटीक संक्षेप, कानून के प्रासंगिक प्रावधान, सुप्रीम कोर्ट/हाई कोर्ट की मिसालें, और यह दिखाना कि केस आगे बढ़ाना “न्याय का दुरुपयोग” होगा।

    4. एनेक्सर्स व हलफ़नामे – समझौते की स्थिति में दोनों पक्षों के शपथपत्र, पहचान-पत्र, सेटलमेंट टर्म्स, भुगतान के प्रमाण आदि।

    5. वकालतनामा/फाइलिंग – कोर्ट-फॉर्मैलिटीज़, कोर्ट-फीस, नंबरिंग।

    6. लिस्टिंग व नोटिस – कोर्ट नोटिस जारी कर सकती है; कई बार स्टेट/पुलिस के जवाब माँगे जाते हैं।

    7. मेडिएशन/रिकॉर्डिंग ऑफ़ सेटलमेंट – matrimonial/cheque-bounce जैसे मामलों में कोर्ट मेडिएशन भेजकर सुलह की पुष्टि करवाती है।

    8. फ़ाइनल हियरिंग – न्यायालय दोनों पक्ष सुनकर आदेश पारित करता है: FIR/चार्जशीट/प्रोसीडिंग्स क्वैश (रद्द) या याचिका खारिज

    9. आदेश की अनुपालन – थाना/ट्रायल-कोर्ट रिकॉर्ड से केस हटता है; यदि ज़मानत/समन पेंडिंग थे, वे समाप्त माने जाते हैं।

    LSO Legal इस पूरी यात्रा में end-to-end सपोर्ट देता है: केस-इवैल्युएशन, बेहतरीन ड्राफ्टिंग, समयबद्ध फ़ाइलिंग, कोर्ट में प्रभावी प्रस्तुति और आदेश के बाद की सभी औपचारिकताएँ—सब कुछ एक ही छत के नीचे।


    किन दस्तावेज़ों की ज़रूरत पड़ती है?

    • FIR/शिकायत की कॉपी, केस-डायरी अंश/चार्जशीट (यदि दाख़िल)

    • पहचान-पत्र (आधार/पैन), एड्रेस-प्रूफ़

    • जमानत/अंतरिम आदेश (यदि कोई)

    • समझौता/सेटलमेंट डीड (मेट्रीमोनियल/फाइनेंशियल मामलों में)

    • ट्रांजैक्शन/ईमेल/चैट/ऑडियो-वीडियो/सीसीटीवी जैसे समर्थन साक्ष्य

    • प्रोफेशन/हेल्थ/ट्रैवल से जुड़ी genuine कठिनाइयों के मेडिकल/ऑफिशियल रिकॉर्ड (यदि प्रासंगिक)

    • Vakalatnama व शपथपत्र

    दस्तावेज़ कम या ज़्यादा केस-टू-केस बदल सकते हैं। एक छोटी-सी कमी भी फाइलिंग में देरी करा सकती है—इसीलिए LSO Legal की डॉक्यूमेंट-रेडी चेकलिस्ट आपको शुरुआत में ही दे दी जाती है।


    कितना समय लग सकता है?

    टाइमलाइन अदालत की pendency, नोटिस/रिप्लाई, मेडिएशन आदि पर निर्भर करती है। सामान्य मामलों में कई बार 30–90 कार्य-दिवस में परिणाम मिल जाता है; जटिल मामलों में अधिक समय भी लग सकता है। हमारा फोकस क्वालिटी ड्राफ्टिंग + समयबद्ध फ़ॉलो-अप पर रहता है ताकि अनावश्यक तारीख़ें न लगें।

    ध्यान दें: कोर्ट का समय अनुमानित होता है; कोई भी एडवोकेट सटीक तारीख़ की गारंटी नहीं दे सकता। पर एक मजबूत याचिका और सही रणनीति से परिणाम तक पहुँचने का रास्ता तेज़ और साफ़ हो जाता है।


    फीस/कॉस्टिंग कैसे तय होती है?

    फीस आपके केस की जटिलता, दस्तावेज़-वॉल्यूम, साक्ष्य-रणनीति, और उर्जेंट/नॉर्मल फाइलिंग पर निर्भर करती है। LSO Legal में आपको पहले ही ट्रांसपेरेंट कोटेशन दे दिया जाता है—जिसमें ड्राफ्टिंग, फाइलिंग, अपीयरेंस और अन्य आवश्यक खर्च अलग-अलग साफ़ दिखाए जाते हैं। आप EMI/डिजिटल पेमेंट जैसे विकल्प भी चुन सकते हैं।


    क्या क्वैशिंग हर केस में मिल जाती है?

    नहीं। अदालतें जघन्य अपराध, सार्वजनिक हित या सिस्टमेटिक अपराध (organized/संगीन) जैसे मामलों में सख़्त रुख़ रखती हैं। समझौता होने के बावजूद कोर्ट यह देखता है कि अपराध का सोसाइटी पर प्रभाव क्या है। इसलिए शुरुआत में ही ईमानदार केस-एसेसमेंट ज़रूरी है—ताकि बेवजह उम्मीद न बंधे और सही रास्ता चुना जा सके (जैसे डिस्चार्ज/ट्रायल/कंपाउंडिंग/सेक्शन-चेंज/मेडिएशन इत्यादि)।


    LSO Legal क्यों?

    • हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट-अनुभवी पैनल: सीनियर एडवोकेट्स की सुपरवाइजरी टीम—कानूनी रिसर्च, मिसालें और न्यायालय की अपेक्षाएँ, सब पर पकड़।

    • प्रो-लेवल ड्राफ्टिंग: क्वैशिंग में “पेपर-प्रेज़ेंटेशन” ही आधी लड़ाई है—हमारे प्लीडिंग्स crisp, case-law-backed और फैक्ट-centric रहते हैं।

    • टाइम-बाउंड प्रोसेस: डॉक्यूमेंट-रेडी चेकलिस्ट, उर्जेंट/नॉर्मल फ़ाइलिंग विकल्प, और ट्रैकिंग-अपडेट्स।

    • Ethical & Transparent: स्पष्ट फ़ीस, कोई हिडन चार्ज नहीं; हर स्टेप पर आप लिखित अपडेट पाते हैं।

    • Pan-India Coordination: जहाँ ज़रूरत हो, लोकल काउंसल के साथ seamless coordination।

    • ह्यूमन-फ्रेंडली सपोर्ट: क़ानूनी भाषा को सरल बनाकर समझाते हैं—ताकि हर निर्णय आप समझकर लें, न कि डरकर

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    आम सवाल (FAQ)

    1) क्या FIR दर्ज होने के तुरंत बाद भी Quashing हो सकती है?
    हाँ, यदि शिकायत पढ़कर ही स्पष्ट हो कि अपराध बनता नहीं, या मामला सिविल प्रकृति का है/मालाफ़ाइड दिखता है—तो शुरुआती चरण में भी हाई कोर्ट दख़ल दे सकता है। कई matrimonial/financial मामलों में शुरुआती मेडिएशन + सेटलमेंट के बाद क्वैशिंग मिल जाती है।

    2) क्या चार्जशीट दाख़िल होने के बाद भी Quashing संभव है?
    जी, यदि चार्जशीट में मौजूद सामग्री से भी प्राइमा-फेसी केस नहीं बनता, या समझौता हो चुका है, या प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ गंभीर हैं—तो कोर्ट चार्जशीट/कार्यवाही रद्द कर सकता है।

    3) क्या व्यक्तिगत उपस्थिति ज़रूरी है?
    कई मामलों में कोर्ट व्यक्तिगत उपस्थिति माँग सकता है—विशेषकर समझौता सत्यापित करने हेतु। पर प्रोफेशनल ड्राफ्टिंग व उचित प्रेयर से उपस्थिति की आवश्यकता को कभी-कभी माफ़ भी कराया जा सकता है। यह केस-टू-केस निर्भर करता है।

    4) क्या पुलिस/स्टेट के विरोध करने पर भी Quashing मिल सकती है?
    हाँ, अगर कानून और तथ्यों के आधार पर कोर्ट को लगे कि मुक़दमा चलाना न्याय का दुरुपयोग है, तो विरोध के बावजूद राहत मिल सकती है। पर जहाँ सोसाइटी-इंटरेस्ट भारी हो, वहाँ कोर्ट सख़्त रहता है।

    5) अगर Quashing याचिका ख़ारिज हो जाए तो?
    तब वैकल्पिक उपाय—डिस्चार्ज, रिविज़न/अपील, ट्रायल में डिफेन्स एविडेंस, कंपाउंडिंग, सेक्शन-चेंज के लिए आवेदन, या जहाँ उचित लगे, सेटलमेंट के बाद दोबारा क्वैशिंग—की रणनीति बनाई जा सकती है। LSO Legal आपका रोडमैप स्पष्ट करता है ताकि आप अटके नहीं, आगे बढ़ें।

    6) क्या समझौते से क्वैशिंग “ऑटोमैटिक” मिल जाती है?
    नहीं। समझौता एक मज़बूत आधार है, पर फाइनल आदेश कोर्ट का होता है। सही ड्राफ्टिंग, हलफ़नामे, और आवश्यक जानकारी प्रस्तुत करना ज़रूरी है—यहीं पर एक अनुभवी टीम की भूमिका निर्णायक होती है।


    LSO Legal का वादा—“कठिन को सरल बनाना”

    केस क्वैशिंग क़ानून की किताबों में भले तकनीकी लगे, पर असल जीत सरल, सटीक और ईमानदार प्रस्तुति में होती है। LSO Legal में हमारा लक्ष्य यही है—आपको कानूनी भाषा समझाना, सही उम्मीद देना, और सही रास्ते पर तेज़ी से आगे बढ़ाना। हमारी प्रो-ड्राफ्टिंग, हाई-कोर्ट प्रैक्टिस, और ट्रांसपेरेंट प्रोसेस की वजह से सैकड़ों क्लाइंट्स ने अनावश्यक मुक़दमों से आज़ादी पाई है।

    अगर आप भी FIR Quashing / High Court Case Quashing / 482 CrPC Petition के बारे में गंभीर हैं, तो आज ही बात करें—0755-4222969। हम पहले आपका केस समझेंगे, फिर सटीक रोडमैप देंगे—ताकि आपका समय, पैसा और मानसिक शांति तीनों बचें।

    * तारांकित फील्ड अनिवार्य रूप से भरनी हैं भुगतान | प्रिंट | डाउनलोड वकालतनामा

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    प्रकरण का विवरण

    उस न्यायालय का नाम जहाँ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत केस समाप्ति के लिए आवेदन दायर किया जाना है।

    आवश्यक दस्तावेज


    ध्यान दें : केस से संबंधित आरोपी के पक्ष की सभी महत्वपूर्ण और आवश्यक जानकारी विस्तार से साझा करना अनिवार्य है।


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